Fighter Review: विजुअली शानदार और इमोशनल लेकिन बालाकोट का सेकुलरीकरण क्यों
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Fighter Review: विजुअली शानदार और इमोशनल लेकिन बालाकोट का सेकुलरीकरण क्यों

फाइटर मूवी देखते वक्त लगता है आप टॉम क्रूज की 'टॉप गन' देख रहे हैं, ऋतिक दीपिका की जोड़ी का करिश्मा और फाइटर प्लेंस के शानदार सीन्स आपको मूवी से शुरू से ही बांध देते हैं.

फाइटर रिव्यूु

Fighter Review: फाइटर मूवी देखते वक्त लगता है आप टॉम क्रूज की 'टॉप गन' देख रहे हैं, ऋतिक दीपिका की जोड़ी का करिश्मा और फाइटर प्लेंस के शानदार सीन्स आपको मूवी से शुरू से ही बांध देते हैं. फिल्म में इमोशंस भी इतने ज्यादा हैं कि आधी मूवी किसी न किसी के दुख में है, शानदार एक्शन, गाने भी ठीक से हैं, एक्टिंग तो गजब सबकी है ही, लेकिन मूवी की कहानी जरूर उसे बहुत बेहतरीन फिल्मों में शामिल होने से रोक सकती है. 

फिल्म के ट्रेलर देख कर लगा था कि 'उरी' की तरह, ऑपरेशन बालाकोट पर बनी होगी ये मूवी, होती तो शायद बेहतर ही होता, लेकिन कहानी को अपने हिसाब से लेखक और निर्देशक ने तोड़ा मरोड़ा और फिल्म एक सामान्य हवाई स्टंट वाली फिल्म बन कर रह गई.

'फाइटर' की कहानी
फिल्म की कहानी है शमशेर पठानियां उर्फ पेट्टी उर्फ शम्मी (ह्रितिक रोशन)की, जो इंडियन एयरफोर्स का शानदार फाइटर पायलट है और कश्मीर में तैनात है. उसका बॉस राकेश रॉकी (अनिल कपूर) उससे हमेशा नाराज रहता है, उनकी टीम में हैं मीनल राठौड़ (दीपिका पादुकोण), सरताज गिल (करण ग्रोवर), और बशीर खान (अक्षय ओबेरॉय) भी पायलट हैं. बालाकोट स्ट्राइक को यही लोग अंजाम देते हैं, लेकिन रॉकी शमशेर के अति उत्साह को पसंद नहीं करता और उस पर कोर्ट ऑफ इंक्वायरी बैठा देता है. 

दरअसल कहानी बालाकोट से आगे अभिनंदन वर्धमान की कहानी पर आगे बढ़ती है, रॉकी का मानना था कि उसमें शमशेर की गलती थी. शमशेर को हैदराबाद अकादमी में चीफ ट्रेनर बनाकर भेज दिया जाता है. बालाकोट की लड़ाई को 10 मिनट में निपटाकर शमशेर रॉकी की तनातनी और शमशेर की गलती की वजह से उसकी मंगेतर पायलट की मौत को लेकर कहानी खिंचती रहती है.

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यहां लेखक भी कहानी में ट्विस्ट डालने के लिए एक के बजाय दो पायलट्स को पाकिस्तान की गिरफ्त में दिखा देते हैं, जिनमें से एक की डेडबॉडी भेज दी जाती है और फिर शुरू होता है दूसरे को छुड़ाने का ऑपरेशन. इधर एयरफोर्स में जाने से नाराज दीपिका के पिता की अलग से इमोशनल स्टोरी चल रही है. 

'फाइटर' का क्लाइमैक्स
हालांकि फिल्म के दूसरे हाफ में हुई बोरियत को एक्शन भरा क्लाइमैक्स खत्म कर देता है, लेकिन एक बड़ा सवाल ये उठता है कि ये कोई चेतन भगत की कहानी थोड़े ही थी जो क्लाइमैक्स में फेरबदल कर दिया. ये तो इतिहास है, जो बच्चे बच्चे को पता है.

सेकुलरीकरण से नहीं चूकते
सिद्धार्थ आनंद की एक और आदत अपनी फिल्मों में रही है कि वो अपनी फिल्मों के जबरन सेकुलरीकरण से नहीं चूकते. जिन पांच फाइटर पायलट्स को बालाकोट स्ट्राइक के लिए गेलेंट्री अवार्ड मिला था, उनके नाम थे विंग कमांडर अमित रंजन, स्क्वाड्रन लीडर्स राहुल बसोया , पंकज भुजाडे, शशांक सिंह और बीकेएन रेड्डी. यानी सारे हिन्दू, एक भी मुस्लिम नहीं, एक भी सिख नहीं और न ही कोई महिला. चलो फिल्म की जरूरत एक हीरोइन हो सकती है, लेकिन सच्ची कहानी पर बनी किसी मूवी में रामप्रसाद बिस्मिल का दोस्त अशफाकुल्लाह खान की जगह कोई सरदार दिखा दिया जाए तो कैसा लगेगा? सिद्धार्थ ने सिख और मुस्लिम पायलट डालकर कहानी सेकुलर बना दी.

ये एंगल भी समझिए
लेकिन ये सिद्धार्थ आनंद की आदत है, 'वॉर' में भी आतंकी हिंदू था और हीरो कबीर का धर्म स्पष्ट नहीं किया गया, 'पठान' में शाहरुख का धर्म स्पष्ट नहीं था. इस मूवी में भी हीरो का नाम शमशेर पठानियाँ भले ही राजपूती नाम लगता है, लेकिन स्पष्ट फिर भी नहीं. काफी मशक्कत से ढूंढकर लाते हैं वो इस तरह के नाम. फिर अभिनंदन की जगह एक सरदार और एक मुस्लिम पायलट पाक की गिरफ्त में भेज दिए, मुस्लिम पायलट शहीद हो गया, जिसके जनाजे पर वंदे मातरम चलाते रहे. ऐसे में 'उरी' फिल्म के मशहूर डायलॉग "हाउ इज द जोश? हाई सर" का एक वॉर मूवी में ही मजाक उड़ाना कहां तक सही था? इस मूवी में कहा गया है, "हाउ इज द गोश्त? टेस्टी सर".

फिर केंद्र सरकार का साफ रवैया है कि पाक की धरती पर अपनों की एक लाश नहीं गिरने देनी, एक तो मूवी में आखिरी ऑपरेशन में केंद्र सरकार की कोई भूमिका ही नहीं दिखाई, दूसरे ऑपरेशन लगभग फेल था, एक पायलट को बचाने के लिए न जाने कितने कमांडो पाक की जमीन पर मरवा दिए जाते हैं और एक सीन नहीं दिखा जहां, उन कमांडोज के शवों को भी वापस लाने को कोशिश दिखी हो.

पूरी मूवी में क्लाइमैक्स छोड़ दिया जाए तो पाकिस्तान से पिटते से ही दिखे हैं भारतीय रणबांकुरे, एक अदना सा आतंकी पूरी फिल्म पर छाया रहता है, ऋषभ साहनी का ये किरदार कहीं कहीं ह्रितिक पर भारी पड़ा है. आखिर में 'इंडिया ऑक्यूपाइड पाकिस्तान' और 'मालिक हम हैं' जैसे डायलॉग केवल फर्स्ट क्लास वाले दर्शकों को पसंद आ सकते हैं. सच ये है कि ये मूवी एंटरटेनमेंट और विजुअल एक्सपीरियंस के लिए तो अच्छी है, पैसे भी खूब कमाएगी, लेकिन कहानी में जरूरत से ज्यादा दखल उसकी मूल आत्मा को मार देता है.

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